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ای مرغِ سحر ناله سُرا آلتِ دستم
درگیرِ فراقم که کنون مستِ اَلَستم
از شوقِ وصالست عیان گشته اَلَستی
دِه جامِ مِی هستی که بیگانه پرستم
کیست آنکه مرا یاری کند مستی در آیم
مستانه ی بی ساقی چه آستانه پرستم
بس سینه ی من پر شرر است طالبِ شرَم
آتش بِکشانَم دو جهان شعله ی مَستم
بیگانه چه ترسم که غمَم گشته بَرِ دوست
پر نام و نشانم که نشان دارِ اَلَستم
گر ثروت رسوائی من هستیِ کان گشت
پس غایت رسوائی سِزَم ساقی پرستم
حافظ تو اگر چاره طلب کردی به ناچار
ناچاری سِزایی مگو دُر دانه ی هَستم
حافظ کریمی