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من شهر نشین و پس از او ساکن صحرا...
او کار من از شهر به این ناحیه انداخت!
شب بود و دو ماهی که نگاهش شده اما؛
دیدار خودش جرم و مرا عدلیه انداخت!
قاضی بکند حکم ، به چشمانِ ستمگر ؛
او بود که در هر نفسم ثانیه انداخت!
من عارفِ این شهر و بدهکار نبودم...
چشمان تو کارم به درِ مالیه انداخت!
متین رضائی عارف