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مسافریام
در شهرِ چشمانت...
چقدر بهتو نزدیکم؛
آنقدر
که در تو
گمگشتهام.
سکوتی بلند،
حصار ناگفتههام شد
در غیابت.
در ژرفای نگاهم،
فراموشی
پنهانی
خانه کردهاست...
مرا
به شهرِ چشمانت
باز بیاور؛
من،
مسافریِ تنها
در کوچههای بیپایانِ توام.
طیبه ایرانیان