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تو همچون جنگل سبزی
منم یک دشت خشکیده
کویری گرم و بی احساس
سکوتی گنگ و پیچیده
تو یک رودی که میتازی
به سوی باور دریا
من اما، عمر میبازم
کنار وسعت صحرا
تو از خورشید میخوانی
من از پاییز و از رفتن
تو از یک زایش دیگر
من از حجم قفس، رَستن
تو بی تابی و لبریزی
پُر از عشقی، پُر از رویا
منم یک برگ خشکیده
به زیر پای آدمها
ساغر روحانی فر