ش | ی | د | س | چ | پ | ج |
1 | ||||||
2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 |
9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 |
16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 |
23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 |
30 | 31 |
این گلشن که
هر از گاهی
گلی می دهد بر باد
دَیرِ دیر پائیست
عادت کرده
به ساختن وُ فرو ریختن
بی آنکه
کسی بداند راز رنج بیهوده اش را
بی شمار
با خون دل
نهال نو نَهد وُ اما فرساید
بالغِ کهنسالش
گوئی این دهر
با جوانی
دوست وُ دشمنیست
از پیری بیزار ......
علیزمان خانمحمدی