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در غفلتِ شب، گم شدم، ای جانِ خدا پناهم!
ماندم میانِ شک و درد، از خویش بیگناهم
در خلوتِ دل میگذشت، آهی زِ شوقِ رفیقان
اما کجا شد آن صفا؟ من ماندم و گناهم
از اعتمادِ کودکی چیزی نماند جز حسرت
ای کاش بازگردد آن ایمانِ بیپناهم
گاهی به ابرِ تیرهدل، گفتم: ببار ای همدرد
شاید به باران بشنوی اندوهِ خستهگاهَم
وقتی همه رفتند و من در خویش غمگین بودم
تنها تو ماندی، ای پناهِ آخرین، خداهم
محمد قاسمی