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چه کنم؟
روزگاریست که من خاموشم
لیک
قلب من میجوشد
چَشم من میگرید
روح، در تن من، رنجور است
سر من بی تاب است
در دلم
پر ز غوغای جهانم، هنوز
پر ز احساس و کلامم، هنوز
لیک
چه کنم؟
همه، از هوش روند...
قلم و جوهر و دست
همه، آشفته و خالی
نقش، بر آب زنند...
چه کنم؟
نفسم گرم آید، سرد و بیروح رود
عاقبت
همه تن میکوشند
شعر بر باد دهند...
و سخن ها همه بر خواب روند...
نه نه...
پر ز احساس و کلامم، هنوز
پر ز امید و پیامم، هنوز
نَفَس و دست و زبان
عاقبت
همه تن می کوشند...
عاقبت
همه، آواز دهند...
همه، بر ساز زنند...
پریسا سبحانی